मैं जिस क्रांति की बुनियाद डाल रहा हूँ, वो बहुत लंबी और कठिन होगी: जगदेव प्रसाद

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बाबू जगदेव प्रसाद: सामाजिक न्याय की धारा का प्रथम क्रांतिकारी नेता, जो संघर्ष और शहादत की बदौलत अमर हो गये

पटना

मैं जिस क्रांति की बुनियाद डाल रहा हूँ, वो बहुत लंबी और कठिन होगी, चूँकि मैं क्रन्तिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूँ, इसलिए लोग आते-जाते रहेंगे,परन्तु इसकी धारा रुकेगी नहीं. पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेंगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जायेंगे, तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे, लेकिन जीत अन्तोगत्वा हमारी ही होगी. शोषित दल की स्थापना के अवसर पर पटना में अमर शहीद जगदेव प्रसाद प्रसाद के उद्गार देश में शोषण के खिलाफ उनके संघर्ष की कहानी कहने के लिए काफी है।

जगदेव प्रसाद का जन्म तत्कालीन गया जिले (अब जहानाबाद) के कुर्था प्रखंड के कुराहरी गाँव में 2 फ़रवरी 1922 को हुआ था उनके पिता का नाम प्रयाग नारायण और माता का नाम रसकली देवी था

अर्थशास्त्र में स्नातोकतर तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद वे लेखन कार्य से जुड़ गये. विचारधारा से सामाजिक न्याय के समर्थक होने के कारण उन्हें सोशलिस्ट पार्टी की पत्रिका “जनता” के संपादन की जिम्मेदारी मिली. पत्रकारीय जीवन के दौरान उन्होंने “सिटिजन” और “उदय” जैसी कई पत्रिकाओं का संपादन किया

बहु प्रतिभा के धनी

इसी प्रतिभा के बल पर उन्हें सोशलिस्ट पार्टी में पहचान मिली और 1957 में उन्होंने बिक्रमगंज लोकसभा से चुनाव लड़ा. लेकिन इस चुनाव में उन्हें पराजय हाथ लगी. 1962 में पुन: कुर्था विधानसभा का चुनाव लड़ा और पुन: हार मिली. लेकिन 1967 में अंततः कुर्था विधानसभा से उन्हें जीत मिली.
1967 में संयुक्त सोशलिस्ट दल की गैर कांग्रेसी सरकार बनने में उनकी सक्रिय भूमिका थी. लेकिन धीरे-धीरे कई मुद्दों पर उनके मतभेद सामने आते रहे

डॉ राम मनोहर लोहिया

डा. राम मनोहर लोहिया से कई मुद्दों पर उनके मतभेद थे. लोहिया की अगुवाई में दिए गये नारा “संसोपा ने बाँध ली है गाँठ, पिछड़ा पांवे सौ में साठ” से वे काफी हद तक इतेफाक नहीं रखते थे. जगदेव प्रसाद का मानना था की वंचितों के हकों के संघर्ष में शोषक वर्ग के प्रति लोहिया नरमी दिखा रहे है.
उनका मानना था की वंचितों की आबादी 90 प्रतिशत है. इन्हीं विचारों के साथ उन्होंने नारा दिया- 100 में 90 शोषित है, वह 90 भाग हमारा है. दस का शासन 90 पर- नहीं चलेगा-नहीं चलेगा.

बाद में आगे चल कर उनके रास्ते अलग हो गये. बिहार विधानसभा में संसोद की सरकार गठन होने के बाद अनुसूचित जाती- अनुसूचित जनजाति और पिछड़ों की सरकार में भागीदारी 40 प्रतिशत ही थी. यह भागीदारी लोहिया के दिए गये नारे ‘’ पिछड़ा पांवे सौ में साठ” से भी मेल नहीं खाती थी।
इसके अलावे संसोद में टिकट दिए जाने के सिद्धांत अनुसूचित जाती- अनुसूचित जनजाति और पिछड़ों के कोटे 60 प्रतिशत में ही ऊँची जाती के महिलाओं को पिछड़ा मानकर टिकट देने पर उनके लोहिया से मतभेद हो गये. कई ऐसे मामले आने पर उन्होंने लोहिया से कहा कि जो दलित-पिछड़े आपकी पार्टी का झंडा ढ़ोते है, उनकी भागीदारी कहाँ गयी.

लोहिया से इन्हीं प्रकार के मतभेदों के कारण उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट दल से अलग होकर 25 अगस्त 1967 को शोषित दल की स्थापना की. दल की स्थापना करते हुए पटना में उन्होंने कहा कि – ऊँची जाति वालों ने हमारे बाप-दादों से हरवाही करवाई है, मैं उनकी राजनीतिक हरवाही करने को तैयार नहीं हूँ. मैं तमाम दलित-पिछड़ों और आदिवासियों और मुसलमानों को एकजुट करूँगा और दिल्ली और पटना की गद्दी पर ऐसे लोगों को बैठाऊँगा जो धन-दौलत का बंटवारा स्वयं करेगी.

समाज में व्याप्त अंधविश्वास और शोषण को ख़त्म करने के लिए ही वे महामना रामस्वरूप वर्मा के द्वारा गठित अर्जक संघ के स्थापना में शामिल हुए. आगे उन्होंने रामस्वरूप वर्मा की पार्टी “समाज दल” के साथ अपने दल का विलय कर दिया. इस प्रकार से 1972 में शोषित समाज दल अस्तित्व में आया. उस दौरान एक नारे ने जनमानस को झकझोर कर रख दिया था- “मानववाद की क्या पहचान, ब्राम्हण और भंगी का बेटा एक सामान.” जगदेव बाबू सिर्फ क्रांतिकारी नेता हीं नहीं थे, बल्कि वे ओजस्वी वक्ता और लेखक भी थे. उन्होंने बेखौफ होकर नारा दिया-
दस का शासन नब्बे पर, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा!
सौ में नब्बे शोषित है, वह नब्बे भाग हमारा है!
धन-धरती और राज- पाट में, नब्बे भाग हमारा है!

आजाद के बाद बिहार की राजनीति में जगदेव बाबू खुलेआम सामंतवादी व्यवस्था को ललकारने वाले एकमात्र नेता थे. उन्होंने सामंती वर्ग के जातीय दंभ को तोड़ने के लिये जम कर ललकार लगाते हुए बिना झिझक के नारा दिया- गोरी-गोरी हाथ कादों में- अगला साल के भादों में!

शोषण व्यवस्था के विरुद्ध आग उगलते विचारों के कारण वे सामंती वर्ग के निशाने पर थे. अंततः उनकी हत्या की साजिश रची गयी. उनकी हत्या के लिए सुनियोजित ढंग से एक ही थाने में जाति विशेष के अफसरों की तैनाती की गयी।

अरवल जिले के कुर्था में 5 सितंबर 1974 को कुर्था सत्याग्रह के नाम से उनकी रैली थी. लगभग बीस हजार लोग जमा थे. उनकी सभा में गुंडे भेज कर साजिशन पुलिस पर रोड़ेबाजी कराया गया. दोपहर का वक्त था,वहां भगदड़ की स्थिति हो गयी।

सत्याग्रह, मची भगदड़

सभास्थल पर भीड़ को शांत करने के लिहाज से वे कमरे से बाहर निकले. फिर मौके पर मौजूद पुलिस अधिकारी ने लाठी-चार्ज और फायरिंग का आदेश दिया. पहली गोली एक लक्ष्मण चौधरी नाम के बालक को लगी, जिसने मौके पर ही दम तोड़ दिया. पुलिस की दूसरी गोली गोली जगदेव बाबू के गले में लग गयी।

मौके पर भीड़ तीतर-बितर हो गयी. उनके सहयोगी उन्हें गाड़ी में ले जाने का प्रयास कर रहे थे कि पुलिस उन्हें सहयोगियों से जबरन घसीट कर थाने ले गयी. जगदेव बाबू की साँसे अभी चल ही रही थी. उन्होंने पानी माँगा. थाने के सामने रहने वाली दलित महिला पानी देने आ रही थी.
पुलिस ने महिला से पानी छीन कर फेक दिया. घायल जगदेव बाबू के मूंह में पुलिसकर्मियों ने पेशाब कर दिया. उनकी छाती पर चढ़कर बंदूक की कुंदे से चोट किया गया. इस तरह से बिहार के लेनिन सामंतवादियों से लड़ते हुए शहीद हो गये.

इसके बाद पूरे गया जिले में कर्फ्यू लगा दिया. उनकी लाश को खपाने के लिए डाल्टेनगंज के जंगलों में ले जाया गया. आकाशवाणी पर शाम को 7:30 बजे उनकी मौत की खबर को भी प्रसारित करने से साजिशन रोक लिया गया.
किन्तु बीबीसी की संध्याकालीन बुलेटिन में यह खबर जैसे ही आयी कि कुर्था सत्याग्रह के दौरान जगदेव बाबू की पुलिस ने हत्या कर दी. तब जा कर बी पी मंडल, भोला प्रसाद सिंह और रामलखन सिंह समेत अन्य समाजवादी नेताओं ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर पर जगदेव बाबू की लाश को हर हाल में पटना लाने का दबाव डाला कि जगदेव बाबू की लाश नहीं लायी गयी तो पूरे बिहार में हिंसा फ़ैल जायेगी. दबाव में 6 सितंबर 1974 की सुबह उनकी लाश को पटना विधायक क्लब में लाया गया.

पूरे बिहार के वंचितों में उनकी शहादत की खबर आग की तरह फैली. 7 सितंबर 1974 को पटना में श्रधांजलि मार्च निकाला गया. जिसमे लाखों लोगों ने भाग लिया. गाँधी मैदान में एक शोक सभा का भी आयोजन हुआ जिसमे जयप्रकाश नारायण, रामस्वरूप वर्मा, कर्पूरी ठाकुर समेत देश भर के समाजवादी नेताओं ने संबोधित किया.

जगदेव बाबू की शहादत पर सामंती मानसिकता से ग्रस्त लोगों ने मिठाईयां बांटी. जगदेव बाबू ने किन परिस्थितियों में शोषण के खिलाफ संघर्ष किया उसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि तब के प्रमुख अख़बार आर्यावर्त के पटना अंक में उनकी हत्या की खबर बेहद दुर्भावनापूर्ण तरीके से छपी, जिसका शीर्षक था- स्वयंभू बिहार लेनिन मारे गए।

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